प्रगति और साम्यवाद

एक साँझ स्वत: ही,
स्वेद-बिंदुओं के भार से मेरी आँखें बंद होती हैं ।
और थकित पलकों से छनकर,
शोणित रश्मियाँ नवीन चित्रों का आकार बुनतीं हैं ।

मैं देखता हूँ कि अपने हाथों में अरुणित ध्वज लिये,
पराश्रित जन-समुदाय का एक प्रतिनिधि
आवाज लगाता है -
“हे श्रमजीवी! तुम्हारी उत्कर्ष-कामना
हमारी प्रगति में गतिरोधक है ।
मध्यरात्रि का तुम्हारा दीपक
हमारी प्रशांत निंद्रा का कंटक है ।
अतः अपने परिश्रम के शोर से,
हमारी कर्तव्य चेतना को जागृत मत करो ।
ईश्वर-प्रदत्त बल-बुद्धि की भिन्नता को स्वीकार करो,
और यदि सक्षम हो,
तो कुछ हमारे अर्थ भी काम करो ।
पर हमें तब अवश्य जगाना,
जब तुम अपनी अराधना का प्रसाद वितरित करोगे ।
वचन दो कि कभी भी,
हमें हमारे अधिकार से नहीं वंचित करोगे ।
व्यर्थ के इन विस्मय-सूत्रों में मत उलझो,
हमारी इस अधिकार-चिंता का सरल-सा प्रत्यय समझो ।
समझो, कि हमारे बल-बुद्धि में अवश्य अंतर है,
पर उसी ईश्वर का दिया,
हम सब का एक समान उदर है ।”

अनायास खुले चक्षुओं में,
प्रगति की रक्तिम संध्या प्रतिबिंबित होती है ।
प्रतीत होता है कि शनैः शनैः पाँव बढाती,
मुझ तक आ पहुँची है साम्यवादी सभ्यता ।
पाता हूँ, मेरे मन-द्वार पर स्वागत तत्पर खड़ी है,
मेरी आलस्यमयी अकर्मण्यता ।



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