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प्रगति और साम्यवाद

एक साँझ स्वत: ही,
स्वेद-बिंदुओं के भार से मेरी आँखें बंद होती हैं ।
और थकित पलकों से छनकर,
शोणित रश्मियाँ नवीन चित्रों का आकार बुनतीं हैं ।

मैं देखता हूँ कि अपने हाथों में अरुणित ध्वज लिये,
पराश्रित जन-समुदाय का एक प्रतिनिधि
आवाज लगाता है -
“हे श्रमजीवी! तुम्हारी उत्कर्ष-कामना
हमारी प्रगति में गतिरोधक है ।
मध्यरात्रि का तुम्हारा दीपक
हमारी प्रशांत निंद्रा का कंटक है ।
अतः अपने परिश्रम के शोर से,
हमारी कर्तव्य चेतना को जागृत मत करो ।
ईश्वर-प्रदत्त बल-बुद्धि की भिन्नता को स्वीकार करो,
और यदि सक्षम हो,
तो कुछ हमारे अर्थ भी काम करो ।
पर हमें तब अवश्य जगाना,
जब तुम अपनी अराधना का प्रसाद वितरित करोगे ।
वचन दो कि कभी भी,
हमें हमारे अधिकार से नहीं वंचित करोगे ।
व्यर्थ के इन विस्मय-सूत्रों में मत उलझो,
हमारी इस अधिकार-चिंता का सरल-सा प्रत्यय समझो ।
समझो, कि हमारे बल-बुद्धि में अवश्य अंतर है,
पर उसी ईश्वर का दिया,
हम सब का एक समान उदर है ।”

अनायास खुले चक्षुओं में,
प्रगति की रक्तिम संध्या प्रतिबिंबित होती है ।
प्रतीत होता है कि शनैः शनैः पाँव बढाती,
मुझ तक आ पहुँची है साम्यवादी सभ्यता ।
पाता हूँ, मेरे मन-द्वार पर स्वागत तत्पर खड़ी है,
मेरी आलस्यमयी अकर्मण्यता ।



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यादें

यूँ ही किताबों में कोई पुराना पन्ना पा गया।
क्या कहूं कि दूर ख़ुद से आज कितना आ गया।

सदियों की धूल जाने कैसे एक पल में गल गई,
और बिसरी यादों में, मैं कितना गहरा समा गया।

ख़ुद के ही लिखे ख़तों को सौ सौ दफ़ा पढ़ता रहा,
हर बार कोई लफ़्ज नया, कुछ ख़्वाब नया सजता गया।

जिक्र कितने मोड़ों का है, कितनी गलियां गुजर गईं,
जाने कितने चौराहों पे, मैं सीधा चलता गया।

हर रात ने मुझको छला, औ' दिन भी कुछ आगे चला,
कुछ बात थी जो मुझमे मैं घटता रहा, मिटता गया।

लो आज आँखें नम हुईं, लो आज जख्म हरा हुआ,
सालों तलक जो यादों से छुपता रहा, भरता गया।

उन बेवजह मुस्कानों से कब से न था कोई वास्ता,
अश्कों को लेकर आँखों में आज मैं मुस्का गया।

उधार

वो कलम तो याद होगी,
जो हमने खरीदी थी कभी हिस्सेदारी में,
हमारी वह कलम मुझे कुछ ज्यादा ही प्यारी थी,
शायद इसलिए भी, क्योंकि वह आधी तुम्हारी थी |
मुझे अभी भी याद है,
कितनी कहानियाँ लिखी थी हमने साथ में |

फिर अचानक एक दिन यह जान पड़ा,
कि हिस्सेदारी का तुम्हारा शौक तो पुराना है |
और किसी लम्बी हिस्सेदारी के सिलसिले में,
तुम्हें कहीं और ही जाना है |
उस रोज़ कितनी उपेक्षा थी तुम्हारी नज़रों में,
जब फेंका था उस कलम को मेरी ओर तुमने,
जब टूटी थी कलम मेरे सीने से टकराकर,
और जब स्याही,
फैल रही थी मेरे कपडों पर,
उतर रही थी मेरे दिल में,
बरस रही थी मेरी आँखों से |

उन टुकडों को रखा है मैंने अब भी संभाल कर,
हाँ, अब उनपर तुम्हारा अधिकार नही रहा,
क्योंकि तुमने तो उन्हें हमेशा के लिए फ़ेंक दिया था न ?
मेरी यादें अछूत तो नहीं थी,
फिर क्या जरूरी था मुझे भूलना ?
अब अधिकार नही है तो याद न ही करना,
और कभी ये चेहरा होठों पे मुस्कान दे जाए तो समझना,
कि वो तुम्हारी जिंदगी पर मेरा उधार रहा,
ऐसा उधार जो तुमसे कभी चुक न सकेगा |

Something less serious: इश्क का जिंदगी पे........

इश्क का जिंदगी पे कुछ अहसान देखिये,
शादाबगी को और थोड़ा पहचान देखिये

पढ़ पढ़ कर आयतों को क्या सीखेंगे इबादत,
कभी किसी काफिर में खुदा जान देखिये

मान लें वादा-खिलाफी वो हँस हँस के बार बार,
लेकर उनकी जुबां की कसमे उनका मान देखिये

होठो की थोडी सी मनमानी लहराने दें उनके बदन पर,
बेनियाजी बातों में उनकी और थोड़ा ईमान देखिये।

दिन भर तरन्नुम-ऐ-तसव्वुर, औ दास्तां-ऐ-मोहब्बत ख्वाब में,
सुबह जो उठिए तो होठों पे उनका नाम देखिये।

आंखों को चुराने के मौसम हज़ार आयेंगे,
निगाहें लगा कर कभी रूह थाम देखिये।